छिन्नमस्तिका के इलाके में-२


अगली सुबह रमाकांत जी तड़के करीब 5  बजे गमछा लपेटकर भैरवी में स्नान करने .... इसके बाद गमछा लपेटे ही कैमरा लिए भैरवी की चट्टानों से होते हुए छिन्नमस्तिका  के मंदिर  में चले गए. थोड़ी देर बाद लौटे तो बताया कि उन्होंने देवी की असली मूर्ति और उसके ऊपर लगे ढक्कन की तसवीर ले ली है. मंदिर में फोटो लेने पर सख्त मनाही थी. रमाकांत जी ने बताया कि आरती कर रहे पंडे से पूछकर तसवीर ली है. ढक्कन हटाकर असली मूर्ति को सिर्फ आरती के वक़्त सुबह ५ बजे और शाम ७ बजे अनावृत किया जाता था. (पिछले वर्ष मूर्ति की चोरी हो गयी थी. अब वहां नयी मूर्ति स्थापित की गयी है). यह दोनों वक़्त भक्तों की गैरमौजूदगी का होता था. लोग प्रायः सुबह 9  बजे के बाद पहुंचते थे और शाम 5  बजते-बजते चल देते थे. मंदिर के आसपास एक डाकबंगला और एक धर्मशाला था. लेकिन शाम के बाद या तो तांत्रिक ठहरते थे या फिर हम जैसे घुमक्कड़. मंदिर के आसपास बिजली का कनेक्शन नहीं लिया गया था. पंडों का मानना था कि देवी रौशनी नहीं पसंद करती. मानव बस्तियां भी कई किलोमीटर की दूरी पर थीं.  
एक घंटे बाद करीब 6 बजे काला बाबा हमें उस जगह ले चलने को तैयार हुए जहां असली मंदिर होने का उन्होंने दावा किया था. हम इसी पार से किनारे-किनारे भैरवी-दामोदर संगम का इलाका पार कर दामोदर के किनारे बढ़ते गए. बायीं तरफ दामोदर था और दायीं तरफ थोड़ी ऊंचाई की ओर जाती चट्टानें और झाड़-झंखाड़. किनारे थोड़ी-थोड़ी   दूरी पर कुछ बड़ी-बड़ी चट्टानें एक दूसरे के ऊपर सलीके से रखी हुईं. काला बाबा ने कहा कि प्राचीन कल में ऋषि-मुनि इनपर बैठकर तपस्या करते थे. उनके मुताबिक दुर्गा सप्तशती में वर्णित राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने यहीं देवी की आराधना की थी.
उस वीरानी में करीब डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक जगह मानव अस्थियां नज़र आयीं. बाबा ने बताया कि यह प्राचीन कल का शमशान था. उसके एक किनारे से बाबा हमें दामोदर के घाट की ओर ले गए. वहां किनारे एक अर्द्ध वृताकार कटाव था. उसके ऊपर की चट्टान कुछ मानव आकृति का आभास दे रही थी. बाबा ने बताया कि इस कटाव से जो दह बना है उसके अन्दर एक गुफा है जो थोडा पानी में डूबा हुआ है. उस गुफा के अन्दर रजरप्पा देवी का प्राचीन मंदिर है. उस दह में सात खाट  की रस्सियों के बराबर गहराई है. किसी ज़माने में मंदिर का एक पुजारी हुआ करता था जो रोज सुबह में एक बकरा और कुल्हाड़ी लेकर दह के अन्दर दुबकी लगाकर मंदिर में जाता था और बकरे की बलि देकर वापस लौट आता था. एक दिन वह अपना कुल्हाड़ा अन्दर ही भूल आया. उसे लेने दुबारा गया तो वहां देवी-देवता भोग लगते दिखे. उन्होंने पुजारी को फिर कभी मंदिर में आने से मन कर दिया. दिन के वक़्त भी वह जगह भयानक लग रही थी. उसके अन्दर जाने की स्थिति नहीं थी. हम काला बाबा के साथ वापस उनकी  कुटिया में लौट आये. ( अब वहां न बाबा की कुटिया है न उनकी समाधि ही. उस जगह पर दूसरे लोगों का कब्ज़ा है.)
(शेष अगले पोस्ट में )

---देवेन्द्र गौतम



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3 टिप्पणियाँ:

Dinesh pareek ने कहा…

आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/03/blog-post_12.html

केवल राम ने कहा…

बहुत जानकारी भरी पोस्ट ...आपकी पोस्ट्स बहुत प्रभावशाली हैं ..आप यूँ ही लिखते रहें

केवल राम ने कहा…

कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...

वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .

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