बढ़ने लगा संपर्कों का दायरा

उन दिनों डिजिटल फोटोग्राफी का प्रचलन नहीं था. रंगीन फोटोग्राफ्स की प्रिंट निकलवाने के लिए कोलकाता  भेजना पड़ता था. कंप्यूटर  भी गिने चुने लोगों के पास था. स्टोरी प्रायः डाक से भेजी जाती थी. रमाकांत जी ने रजरप्पा में पूरी एक रील यानी 36 तस्वीरें खींची थीं. हमने रील साफ कराने और प्रिंट निकलवाने के लिए फोटो हॉउस में विपिन भाई को दे दी. विपिन भाई भी प्रेस फोटोग्राफर थे. उनके स्टूडियो में पत्रकारों का जमावड़ा लगता था. इस बीच मेरी एक स्टोरी धर्मयुग में छपी और एक साप्ताहिक हिंदुस्तान के लिए स्वीकृत हो गयी. धर्मयुग की स्टोरी झारखंड में जंगलों के सफाए से सम्बंधित थी. उसे पढने के बाद पत्रकार सुबोध सिंह पवार मिलने आये. वे आज के संवाददाता थे. उनके दो डम्पर चलते थे. कोयले का धंधा था. कुछ दोस्तों के साथ मिलकर ठीकेदारी भी करते थे. पढने लिखने का उन्हें काफी शौक़ था. उनके एक चेले थे सुधीर किशन. फोटोग्राफी का शौक़ था. पढ़े लिखे ज्यादा नहीं थे लेकिन बहुत तेज़ तर्रार और हंसमुख स्वभाव के उनके अंदर किसी को खड़े-खड़े बेच देने जैसी सलाहियत थी. बेरमो से लेकर धनबाद तक सारे माफिया सरदारों से अच्छे संबंध थे. धनबाद के सबसे बड़े माफिया सरदार स्वर्गीय सूरजदेव सिंह के तो भक्त थे.
                      बहरहाल धीरे-धीरे पहचान का दायरा बढ़ने लगा, लोगों का सहयोग भी मिलने लगा. कुछ माफिया पोषित रिपोर्टरों को मेरी सक्रियता से परेशानी भी हो रही थी.मैं फ्री लांसिंग कर रहा था इसलिए जो भी टॉपिक मिलता, संबंधित तसवीरें उपलब्ध होतीं किसी पत्रिका या दैनिक अख़बार में भेज देता. न किसी की नाराजगी की परवाह थी न किसी को खुश करने की नीयत. जो लिखता उसमें कोई छपती कोई सधन्यवाद वापस लौट आती. फिर भी पटना  से प्रकाशित नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान के अलावा कई पत्र-पत्रिकाओं में मेरे राइट-अप छपने लगे थे.उन दिनों टाइम्स ऑफ़ इंडिया के रिपोर्टर थे प्रो. रमेश कुमार सिंहा. वे एक स्थानीय कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे. पत्रकार संघ के अध्यक्ष थे और सीसीएल प्रबंधन तथा माफिया तंत्र पर अच्छी पकड़ रखते थे. उनकी काफी प्रतिष्ठा थी. इसलिए थोडा मगरूर भी थे. एक दिन विपिन भाई के स्टूडियो में उनसे मुलाक़ात हो गयी. विपिन भाई ने पूछा-सर को पहचानते हैं.? मैंने कहा- नहीं...कौन हैं..?  विपिन भाई ने कहा-प्रोफ़ेसर सिंहा साहब हैं... टाइम्स ऑफ़ इंडिया के. मैंने कहा-अच्छा!...प्रोफ़ेसर सिंहा मुझसे मुखातिब हुए. बोले-जिले में एक ही होता है. मैंने कहा-पता नहीं मेरा तो कोई दायरा नहीं है. अच्छी स्टोरी मिले तो कहीं भी जा सकता हूं. दरअसल मुझे सिंहा साहब का स्टाइल पसंद नहीं आया. इसलिए मैंने भी उन्हें ज्यादा भाव नहीं दिया. बाद में सुबोध सिंह पवार से उनके बारे में पूछा. उन्होंने बताया कि वे न्यूज़ रिपोर्टर हैं. भाषा अच्छी है लेकिन ज्यादातर रोटिन न्यूज़ लिखते हैं. मैनेजिंग पॉवर अच्छी है. बहरहाल मेरे साथ उनका व्यक्तित्व संघर्ष शुरू हो गया था.(जारी)

---देवेंद्र गौतम 

छिन्नमस्तिका के इलाके में-3

पूरे दिन रजरप्पा के आसपास कुदरत के नज़रों से दो-चार होते रहे. दामोदर नदी के उसपार वीराने में काफी देर तक चक्कर लगाते रहे. रंग विरंगे पत्थरों को इकठ्ठा करते रहे. एक जगह आधा तराशी हुई बड़ी-बड़ी चट्टानें दिखाई पड़ीं. यह चट्टानें ठीक उसी पत्थर की लग रही थीं जिससे छिन्नमस्तिका मंदिर का निर्माण हुआ है. लगा जैसे मूर्तिकार के पत्थर तराशते-तराशते सुबह हो गयी और वह उन्हें अधूरा छोड़कर चला गया. ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण देवताओं के अभियंता विश्वकर्मा ने एक रात में किया था. यदि वे पत्थर पत्थर तराश रहे थे तो सामग्री उनके आकलन से ज्यादा कैसे हो गयी समझ में नहीं आया. बहरहाल वापस लौटकर  हमने तकरीबन सभी मंदिरों के चक्कर लगाये. बताया गया कि यह तंत्रपीठ है और यहां  नरबलि के बिना किसी मूर्ति कि स्थापना होने पर अनिष्ट हो जाता है.इसलिए सभी मंदिरों के शिलान्यास के पूर्व नरबलि दी गयी है. कुछ देर चक्कर लगाने के बाद हम काला बाबा की कुटिया में लौट आये. काला बाबा की कुटिया में मंदिर से जुड़े प्रायः लोग दम लगाने की नीयत से आते थे. गपशप के दौरान कई अहम् सूचनाएं दे जाते थे.  हमें स्टोरी के लिए  कई दिलचस्प जानकारियां अनायास ही मिल जा रही थीं. भैरवी नदी के उस पार मंदिर वाले इलाके में एक महिला और पुरुष जटाधारी दिखे. पता चला कि वे बोडिया बाबा हैं और उनकी भैरवी उनके साथ ही रहती थी. तंत्र  साधना में भैरवी की अहम् भूमिका होती है. हर तांत्रिक के पास अपनी भैरवी होती है. कुछ लोग जिन्हें बाहर की भैरवी नहीं मिल पाती,  अपनी पत्नी को ही भैरवी बना लेते हैं. कला बाबा के पास कोई भैरवी नहीं थी. अघोर पंथ में इसकी स्थाई ज़रूरत नहीं होती. जरूरत पड़ने पर दूसरे की भैरवी से काम चला लेते हैं. बहरहाल रजरप्पा में अच्छा लगा हमने तय किया कि जब भी मौक़ा मिलेगा यहां आयेंगे. स्टोरी लायक मसाला मिल चुका था. इसलिए अगली सुबह हम बेरमो वापस लौट आये. (जारी....)
---देवेंद्र गौतम 

छिन्नमस्तिका के इलाके में-२


अगली सुबह रमाकांत जी तड़के करीब 5  बजे गमछा लपेटकर भैरवी में स्नान करने .... इसके बाद गमछा लपेटे ही कैमरा लिए भैरवी की चट्टानों से होते हुए छिन्नमस्तिका  के मंदिर  में चले गए. थोड़ी देर बाद लौटे तो बताया कि उन्होंने देवी की असली मूर्ति और उसके ऊपर लगे ढक्कन की तसवीर ले ली है. मंदिर में फोटो लेने पर सख्त मनाही थी. रमाकांत जी ने बताया कि आरती कर रहे पंडे से पूछकर तसवीर ली है. ढक्कन हटाकर असली मूर्ति को सिर्फ आरती के वक़्त सुबह ५ बजे और शाम ७ बजे अनावृत किया जाता था. (पिछले वर्ष मूर्ति की चोरी हो गयी थी. अब वहां नयी मूर्ति स्थापित की गयी है). यह दोनों वक़्त भक्तों की गैरमौजूदगी का होता था. लोग प्रायः सुबह 9  बजे के बाद पहुंचते थे और शाम 5  बजते-बजते चल देते थे. मंदिर के आसपास एक डाकबंगला और एक धर्मशाला था. लेकिन शाम के बाद या तो तांत्रिक ठहरते थे या फिर हम जैसे घुमक्कड़. मंदिर के आसपास बिजली का कनेक्शन नहीं लिया गया था. पंडों का मानना था कि देवी रौशनी नहीं पसंद करती. मानव बस्तियां भी कई किलोमीटर की दूरी पर थीं.  
एक घंटे बाद करीब 6 बजे काला बाबा हमें उस जगह ले चलने को तैयार हुए जहां असली मंदिर होने का उन्होंने दावा किया था. हम इसी पार से किनारे-किनारे भैरवी-दामोदर संगम का इलाका पार कर दामोदर के किनारे बढ़ते गए. बायीं तरफ दामोदर था और दायीं तरफ थोड़ी ऊंचाई की ओर जाती चट्टानें और झाड़-झंखाड़. किनारे थोड़ी-थोड़ी   दूरी पर कुछ बड़ी-बड़ी चट्टानें एक दूसरे के ऊपर सलीके से रखी हुईं. काला बाबा ने कहा कि प्राचीन कल में ऋषि-मुनि इनपर बैठकर तपस्या करते थे. उनके मुताबिक दुर्गा सप्तशती में वर्णित राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने यहीं देवी की आराधना की थी.
उस वीरानी में करीब डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक जगह मानव अस्थियां नज़र आयीं. बाबा ने बताया कि यह प्राचीन कल का शमशान था. उसके एक किनारे से बाबा हमें दामोदर के घाट की ओर ले गए. वहां किनारे एक अर्द्ध वृताकार कटाव था. उसके ऊपर की चट्टान कुछ मानव आकृति का आभास दे रही थी. बाबा ने बताया कि इस कटाव से जो दह बना है उसके अन्दर एक गुफा है जो थोडा पानी में डूबा हुआ है. उस गुफा के अन्दर रजरप्पा देवी का प्राचीन मंदिर है. उस दह में सात खाट  की रस्सियों के बराबर गहराई है. किसी ज़माने में मंदिर का एक पुजारी हुआ करता था जो रोज सुबह में एक बकरा और कुल्हाड़ी लेकर दह के अन्दर दुबकी लगाकर मंदिर में जाता था और बकरे की बलि देकर वापस लौट आता था. एक दिन वह अपना कुल्हाड़ा अन्दर ही भूल आया. उसे लेने दुबारा गया तो वहां देवी-देवता भोग लगते दिखे. उन्होंने पुजारी को फिर कभी मंदिर में आने से मन कर दिया. दिन के वक़्त भी वह जगह भयानक लग रही थी. उसके अन्दर जाने की स्थिति नहीं थी. हम काला बाबा के साथ वापस उनकी  कुटिया में लौट आये. ( अब वहां न बाबा की कुटिया है न उनकी समाधि ही. उस जगह पर दूसरे लोगों का कब्ज़ा है.)
(शेष अगले पोस्ट में )

---देवेन्द्र गौतम