(क्षमा चाहता हूं मित्रो!...संस्मरण की दूसरी कड़ी के बाद फिर गैप हो गया. मैं अपने दूसरे ब्लॉग्स पर काम कर रहा था. लम्बे समय से चौथा खम्भा पर आया ही नहीं था. आज अचानक अपने डैश बोर्ड पर फोलोवर्स लिस्ट में दो का अंक देखा तो उसे खोला.दूसरी फोलोअर निर्मला कपिला जी निकलीं. फिर हरकीरत हीर और निर्मला जी की टिप्पणियां देखीं. मेरा हौसला बढ़ा. मुझे लगा कि अब रेस्पोंस मिल रहा है तो इस स्टोरी को आगे बढ़ाना मेरी नैतिक जिम्मेवारी बन जाती है. मुझे डायरी लिखने की आदत नहीं है. इसलिए घटनाओं की तिथि नहीं बता पाऊंगा. ज्यों-ज्यों बातें स्मरण होती जायेंगी. लिखता जाऊंगा.संभव है इस ब्लॉग के चलते कुछ लोगों का कोप-भजन बनना पड़े. लेकिन कोई परवा नहीं.सच्चाई तो दुनिया के सामने आनी ही चाहिए. चाहे इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े.)
अगली सुबह रमाकांत जी अपने बाइक से मेरे पास पहुंचे. उन्होंने एक कैमरे का जुगाड़ कर लिया था.फुसरो से जैना मोड़, पेटरवार होते हुए हम रजरप्पा पहुंचे. रमाकांत जी ने रास्ते में गांजे की पुडिया ले ली थी. हम छिन्नमस्तिका मंदिर के सामने भैरवी नदी के इस पार पहुंचे. वहां एक शिव मंदिर था और उसके पास ही एक फूस की कुटिया थी. उसमें एक अघोर साधू काला बाबा रहते थे. कुटिया के अंदर उनका बिस्तर बिछा रहता था. वहीँ बैठे रहते थे. सामने धूनी प्रज्वलित रहती थी. वह कभी बुझती नहीं थी. उसके लिए श्मशान से लकड़ी लाते थे. रमाकांत जी अक्सर उनके पास आते-जाते थे. रजरप्पा में वे काला बाबा की कुटिया में ही ठहरते थे. काला बाबा कहीं आते-जाते नहीं थे.सिर्फ आबश्यक कार्यों के लिए ही कुटिया से निकलते थे. उनका गोरा चिटठा चेहरा अद्भुत चमक लिए हुए था. वे न किसी से कुछ मांगते थे न देते थे. किसी ने श्रद्धावश कुछ दे दिया तो स्वीकार कर लिया वरना पड़े रहे. उनके खाने पीने का सामान कहीं न कहीं से आ ही जाता था. बड़े सरल प्रकृति के आध्यात्मिक व्यक्ति थे.
रमाकांत जी को देखते ही वे खुश हो गए.मेरे बारे में यह जानने के बाद कि लिखने-पढने वाला आदमी हूँ उन्होंने बताया कि जो सामने नज़र आ रहा है वह देवी का असली मंदिर नहीं है. असली मंदिर वहां से एक किलोमीटर पर दामोदर नदी के अंदर है.मेरी दिलचस्पी बढ़ी.मैंने पूछा कि क्या हमें उस जगह पर ले जा सकते हैं. उन्होंने कहा कि सुबह में चलेंगे. इस बीच रमाकांत जी चीलम तैयार कर चुके थे. उसका सेवन करने के बाद वे खिचड़ी बनाने की समग्री ले आये. तय हुआ कि खाने के बाद घूमने निकलेंगे. काला बाबा ने धूनी पर खिचड़ी चढ़ा दी. रमाकांत जी के साथ मैं कुटिया के 10 -12 फुट नीचे स्थित भैरवी नदी की चट्टानों पर चला आया. भैरवी नदी में चट्टानों के बीच से पानी की तेज धार बह रही थी.वहां से डेढ़-दो सौ फुट की दूरी पर भैरवी और दामोदर नदी का संगम हुआ है. करीब 20 फुट की ऊंचाई से भैरवी का पानी दामोदर नदी में गिरता है. वहां झरने का दृश्य दिखाई देता है. दिलचस्प बात यह है कि झारखण्ड और पश्चिमी बंगाल के जिन इलाकों से दामोदर का पानी गुज़रता है. हाहाकार मचाते चलता है. उसका पाट भी चौड़ा है. लेकिन रजरप्पा में दामोदर बिलकुल शांत हो जाता है. पाट भी अपेक्षाकृत पतला है. दूसरी तरफ भैरवी शोर मचाती हुई दामोदर में गिरती है. जिस जगह भैरवी का जल दामोदर में गिरता है उसे कामिनदह कहते हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि उसकी गहराई सात खाट की रस्सियों के बराबर थी. कहते हैं कि मध्य कल में झारखण्ड के राजा दुर्ज़न सिंह अपने गोताखोरों को इसमें से पत्थर निकलने के लिए भेजते थे. उसमें हीरे की पहचान कर राजकोष में रखते थे. उन्हें हीरे की ज़बरदस्त परख थी.यह कोयला खदान के पास का इलाका है. मुश्किल से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर सीसीएल का रजरप्पा प्रोजेक्ट है. कोलवाशरी भी है. अब कामिनदह की वह गहराई नहीं रही. वाशरी से बहकर आते कोयले के सूक्ष्म कणों ने जिसे स्लरी कहते हैं ने इसे भर दिया है. यदि इसकी तलहट्टी में अब भी हीरे हैं तो लाखों टन स्लरी के नीचे दबे पड़े हैं.
यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत है. चारो और चट्टानें हैं. और नदी की कलकल ध्वनि. भैरवी के उस पार मंदिर के पास यात्रियों का शोर. इस पार शांति......
छिन्नमस्तिका को दश महाविद्या के अंतर्गत शुमार किया जाता है. दश महाविद्या में पांच तांत्रिक और पांच वैष्णवी देवियां हैं. छिन्नमस्तिका तांत्रिक देवी मानी जाती हैं. उनके मंदिर से थोड़ी दूरी पर एक ही परिसर में दश महाविद्या में शामिल देवियों के छोटे-छोटे मगर खूबसूरत मंदिर हैं. और भी कई मंदिर हैं
अगली सुबह रमाकांत जी अपने बाइक से मेरे पास पहुंचे. उन्होंने एक कैमरे का जुगाड़ कर लिया था.फुसरो से जैना मोड़, पेटरवार होते हुए हम रजरप्पा पहुंचे. रमाकांत जी ने रास्ते में गांजे की पुडिया ले ली थी. हम छिन्नमस्तिका मंदिर के सामने भैरवी नदी के इस पार पहुंचे. वहां एक शिव मंदिर था और उसके पास ही एक फूस की कुटिया थी. उसमें एक अघोर साधू काला बाबा रहते थे. कुटिया के अंदर उनका बिस्तर बिछा रहता था. वहीँ बैठे रहते थे. सामने धूनी प्रज्वलित रहती थी. वह कभी बुझती नहीं थी. उसके लिए श्मशान से लकड़ी लाते थे. रमाकांत जी अक्सर उनके पास आते-जाते थे. रजरप्पा में वे काला बाबा की कुटिया में ही ठहरते थे. काला बाबा कहीं आते-जाते नहीं थे.सिर्फ आबश्यक कार्यों के लिए ही कुटिया से निकलते थे. उनका गोरा चिटठा चेहरा अद्भुत चमक लिए हुए था. वे न किसी से कुछ मांगते थे न देते थे. किसी ने श्रद्धावश कुछ दे दिया तो स्वीकार कर लिया वरना पड़े रहे. उनके खाने पीने का सामान कहीं न कहीं से आ ही जाता था. बड़े सरल प्रकृति के आध्यात्मिक व्यक्ति थे.
रमाकांत जी को देखते ही वे खुश हो गए.मेरे बारे में यह जानने के बाद कि लिखने-पढने वाला आदमी हूँ उन्होंने बताया कि जो सामने नज़र आ रहा है वह देवी का असली मंदिर नहीं है. असली मंदिर वहां से एक किलोमीटर पर दामोदर नदी के अंदर है.मेरी दिलचस्पी बढ़ी.मैंने पूछा कि क्या हमें उस जगह पर ले जा सकते हैं. उन्होंने कहा कि सुबह में चलेंगे. इस बीच रमाकांत जी चीलम तैयार कर चुके थे. उसका सेवन करने के बाद वे खिचड़ी बनाने की समग्री ले आये. तय हुआ कि खाने के बाद घूमने निकलेंगे. काला बाबा ने धूनी पर खिचड़ी चढ़ा दी. रमाकांत जी के साथ मैं कुटिया के 10 -12 फुट नीचे स्थित भैरवी नदी की चट्टानों पर चला आया. भैरवी नदी में चट्टानों के बीच से पानी की तेज धार बह रही थी.वहां से डेढ़-दो सौ फुट की दूरी पर भैरवी और दामोदर नदी का संगम हुआ है. करीब 20 फुट की ऊंचाई से भैरवी का पानी दामोदर नदी में गिरता है. वहां झरने का दृश्य दिखाई देता है. दिलचस्प बात यह है कि झारखण्ड और पश्चिमी बंगाल के जिन इलाकों से दामोदर का पानी गुज़रता है. हाहाकार मचाते चलता है. उसका पाट भी चौड़ा है. लेकिन रजरप्पा में दामोदर बिलकुल शांत हो जाता है. पाट भी अपेक्षाकृत पतला है. दूसरी तरफ भैरवी शोर मचाती हुई दामोदर में गिरती है. जिस जगह भैरवी का जल दामोदर में गिरता है उसे कामिनदह कहते हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि उसकी गहराई सात खाट की रस्सियों के बराबर थी. कहते हैं कि मध्य कल में झारखण्ड के राजा दुर्ज़न सिंह अपने गोताखोरों को इसमें से पत्थर निकलने के लिए भेजते थे. उसमें हीरे की पहचान कर राजकोष में रखते थे. उन्हें हीरे की ज़बरदस्त परख थी.यह कोयला खदान के पास का इलाका है. मुश्किल से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर सीसीएल का रजरप्पा प्रोजेक्ट है. कोलवाशरी भी है. अब कामिनदह की वह गहराई नहीं रही. वाशरी से बहकर आते कोयले के सूक्ष्म कणों ने जिसे स्लरी कहते हैं ने इसे भर दिया है. यदि इसकी तलहट्टी में अब भी हीरे हैं तो लाखों टन स्लरी के नीचे दबे पड़े हैं.
यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत है. चारो और चट्टानें हैं. और नदी की कलकल ध्वनि. भैरवी के उस पार मंदिर के पास यात्रियों का शोर. इस पार शांति......
छिन्नमस्तिका को दश महाविद्या के अंतर्गत शुमार किया जाता है. दश महाविद्या में पांच तांत्रिक और पांच वैष्णवी देवियां हैं. छिन्नमस्तिका तांत्रिक देवी मानी जाती हैं. उनके मंदिर से थोड़ी दूरी पर एक ही परिसर में दश महाविद्या में शामिल देवियों के छोटे-छोटे मगर खूबसूरत मंदिर हैं. और भी कई मंदिर हैं
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