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बढ़ने लगा संपर्कों का दायरा
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छिन्नमस्तिका के इलाके में-3
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छिन्नमस्तिका के इलाके में-२
अगली सुबह रमाकांत जी तड़के करीब 5 बजे गमछा लपेटकर भैरवी में स्नान करने .... इसके बाद गमछा लपेटे ही कैमरा लिए भैरवी की चट्टानों से होते हुए छिन्नमस्तिका के मंदिर में चले गए. थोड़ी देर बाद लौटे तो बताया कि उन्होंने देवी की असली मूर्ति और उसके ऊपर लगे ढक्कन की तसवीर ले ली है. मंदिर में फोटो लेने पर सख्त मनाही थी. रमाकांत जी ने बताया कि आरती कर रहे पंडे से पूछकर तसवीर ली है. ढक्कन हटाकर असली मूर्ति को सिर्फ आरती के वक़्त सुबह ५ बजे और शाम ७ बजे अनावृत किया जाता था. (पिछले वर्ष मूर्ति की चोरी हो गयी थी. अब वहां नयी मूर्ति स्थापित की गयी है). यह दोनों वक़्त भक्तों की गैरमौजूदगी का होता था. लोग प्रायः सुबह 9 बजे के बाद पहुंचते थे और शाम 5 बजते-बजते चल देते थे. मंदिर के आसपास एक डाकबंगला और एक धर्मशाला था. लेकिन शाम के बाद या तो तांत्रिक ठहरते थे या फिर हम जैसे घुमक्कड़. मंदिर के आसपास बिजली का कनेक्शन नहीं लिया गया था. पंडों का मानना था कि देवी रौशनी नहीं पसंद करती. मानव बस्तियां भी कई किलोमीटर की दूरी पर थीं.
एक घंटे बाद करीब 6 बजे काला बाबा हमें उस जगह ले चलने को तैयार हुए जहां असली मंदिर होने का उन्होंने दावा किया था. हम इसी पार से किनारे-किनारे भैरवी-दामोदर संगम का इलाका पार कर दामोदर के किनारे बढ़ते गए. बायीं तरफ दामोदर था और दायीं तरफ थोड़ी ऊंचाई की ओर जाती चट्टानें और झाड़-झंखाड़. किनारे थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कुछ बड़ी-बड़ी चट्टानें एक दूसरे के ऊपर सलीके से रखी हुईं. काला बाबा ने कहा कि प्राचीन कल में ऋषि-मुनि इनपर बैठकर तपस्या करते थे. उनके मुताबिक दुर्गा सप्तशती में वर्णित राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने यहीं देवी की आराधना की थी.
उस वीरानी में करीब डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक जगह मानव अस्थियां नज़र आयीं. बाबा ने बताया कि यह प्राचीन कल का शमशान था. उसके एक किनारे से बाबा हमें दामोदर के घाट की ओर ले गए. वहां किनारे एक अर्द्ध वृताकार कटाव था. उसके ऊपर की चट्टान कुछ मानव आकृति का आभास दे रही थी. बाबा ने बताया कि इस कटाव से जो दह बना है उसके अन्दर एक गुफा है जो थोडा पानी में डूबा हुआ है. उस गुफा के अन्दर रजरप्पा देवी का प्राचीन मंदिर है. उस दह में सात खाट की रस्सियों के बराबर गहराई है. किसी ज़माने में मंदिर का एक पुजारी हुआ करता था जो रोज सुबह में एक बकरा और कुल्हाड़ी लेकर दह के अन्दर दुबकी लगाकर मंदिर में जाता था और बकरे की बलि देकर वापस लौट आता था. एक दिन वह अपना कुल्हाड़ा अन्दर ही भूल आया. उसे लेने दुबारा गया तो वहां देवी-देवता भोग लगते दिखे. उन्होंने पुजारी को फिर कभी मंदिर में आने से मन कर दिया. दिन के वक़्त भी वह जगह भयानक लग रही थी. उसके अन्दर जाने की स्थिति नहीं थी. हम काला बाबा के साथ वापस उनकी कुटिया में लौट आये. ( अब वहां न बाबा की कुटिया है न उनकी समाधि ही. उस जगह पर दूसरे लोगों का कब्ज़ा है.)
(शेष अगले पोस्ट में )
---देवेन्द्र गौतम
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छिन्नमस्तिका के इलाके में....(1)
अगली सुबह रमाकांत जी अपने बाइक से मेरे पास पहुंचे. उन्होंने एक कैमरे का जुगाड़ कर लिया था.फुसरो से जैना मोड़, पेटरवार होते हुए हम रजरप्पा पहुंचे. रमाकांत जी ने रास्ते में गांजे की पुडिया ले ली थी. हम छिन्नमस्तिका मंदिर के सामने भैरवी नदी के इस पार पहुंचे. वहां एक शिव मंदिर था और उसके पास ही एक फूस की कुटिया थी. उसमें एक अघोर साधू काला बाबा रहते थे. कुटिया के अंदर उनका बिस्तर बिछा रहता था. वहीँ बैठे रहते थे. सामने धूनी प्रज्वलित रहती थी. वह कभी बुझती नहीं थी. उसके लिए श्मशान से लकड़ी लाते थे. रमाकांत जी अक्सर उनके पास आते-जाते थे. रजरप्पा में वे काला बाबा की कुटिया में ही ठहरते थे. काला बाबा कहीं आते-जाते नहीं थे.सिर्फ आबश्यक कार्यों के लिए ही कुटिया से निकलते थे. उनका गोरा चिटठा चेहरा अद्भुत चमक लिए हुए था. वे न किसी से कुछ मांगते थे न देते थे. किसी ने श्रद्धावश कुछ दे दिया तो स्वीकार कर लिया वरना पड़े रहे. उनके खाने पीने का सामान कहीं न कहीं से आ ही जाता था. बड़े सरल प्रकृति के आध्यात्मिक व्यक्ति थे.
रमाकांत जी को देखते ही वे खुश हो गए.मेरे बारे में यह जानने के बाद कि लिखने-पढने वाला आदमी हूँ उन्होंने बताया कि जो सामने नज़र आ रहा है वह देवी का असली मंदिर नहीं है. असली मंदिर वहां से एक किलोमीटर पर दामोदर नदी के अंदर है.मेरी दिलचस्पी बढ़ी.मैंने पूछा कि क्या हमें उस जगह पर ले जा सकते हैं. उन्होंने कहा कि सुबह में चलेंगे. इस बीच रमाकांत जी चीलम तैयार कर चुके थे. उसका सेवन करने के बाद वे खिचड़ी बनाने की समग्री ले आये. तय हुआ कि खाने के बाद घूमने निकलेंगे. काला बाबा ने धूनी पर खिचड़ी चढ़ा दी. रमाकांत जी के साथ मैं कुटिया के 10 -12 फुट नीचे स्थित भैरवी नदी की चट्टानों पर चला आया. भैरवी नदी में चट्टानों के बीच से पानी की तेज धार बह रही थी.वहां से डेढ़-दो सौ फुट की दूरी पर भैरवी और दामोदर नदी का संगम हुआ है. करीब 20 फुट की ऊंचाई से भैरवी का पानी दामोदर नदी में गिरता है. वहां झरने का दृश्य दिखाई देता है. दिलचस्प बात यह है कि झारखण्ड और पश्चिमी बंगाल के जिन इलाकों से दामोदर का पानी गुज़रता है. हाहाकार मचाते चलता है. उसका पाट भी चौड़ा है. लेकिन रजरप्पा में दामोदर बिलकुल शांत हो जाता है. पाट भी अपेक्षाकृत पतला है. दूसरी तरफ भैरवी शोर मचाती हुई दामोदर में गिरती है. जिस जगह भैरवी का जल दामोदर में गिरता है उसे कामिनदह कहते हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि उसकी गहराई सात खाट की रस्सियों के बराबर थी. कहते हैं कि मध्य कल में झारखण्ड के राजा दुर्ज़न सिंह अपने गोताखोरों को इसमें से पत्थर निकलने के लिए भेजते थे. उसमें हीरे की पहचान कर राजकोष में रखते थे. उन्हें हीरे की ज़बरदस्त परख थी.यह कोयला खदान के पास का इलाका है. मुश्किल से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर सीसीएल का रजरप्पा प्रोजेक्ट है. कोलवाशरी भी है. अब कामिनदह की वह गहराई नहीं रही. वाशरी से बहकर आते कोयले के सूक्ष्म कणों ने जिसे स्लरी कहते हैं ने इसे भर दिया है. यदि इसकी तलहट्टी में अब भी हीरे हैं तो लाखों टन स्लरी के नीचे दबे पड़े हैं.
यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत है. चारो और चट्टानें हैं. और नदी की कलकल ध्वनि. भैरवी के उस पार मंदिर के पास यात्रियों का शोर. इस पार शांति......
छिन्नमस्तिका को दश महाविद्या के अंतर्गत शुमार किया जाता है. दश महाविद्या में पांच तांत्रिक और पांच वैष्णवी देवियां हैं. छिन्नमस्तिका तांत्रिक देवी मानी जाती हैं. उनके मंदिर से थोड़ी दूरी पर एक ही परिसर में दश महाविद्या में शामिल देवियों के छोटे-छोटे मगर खूबसूरत मंदिर हैं. और भी कई मंदिर हैं
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हलफनामा-2
(क्षमा करेंगे हलफनामा की पहली और दूसरी कड़ी के बीच लम्बा अंतराल हो गया. कुछ व्यक्तिगत कारणों से ऐसा हुआ. अब इस संस्मरण को आगे बढ़ा रहा हूँ.)
इजराइल अंसारी से मेरी मुलाक़ात बहुत बाद में हुई. उस वक़्त पराशर को यह बात खली की उनकी रिपोर्ट नहीं छप सकी हालाँकि बाद में उनकी रिपोर्ट भी दिल्ली की एक समाचार पत्रिका में छप गयी. एक दिन कोयला मजदूर संघ के नेता मधुसूदन सिंह भैया से मिलने आये. वे गिरिडीह के तत्कालीन सांसद रामदास सिंह के भतीजे थे. उनका यूनियन हिंद मजदूर संघ से संबध था हालाँकि राजनैतिक रूप से वे लोग भारतीय जनता पार्टी से जुड़े थे. बहरहाल मधुसूदन सिंह ने एक खदान का जिक्र किया जो सर्वाधिक असुरक्षित था लेकिन जिसे सुरक्षा का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. मेरी दिलचस्पी बढ़ी. भैया के सामने तो चुप रहा लेकिन जब वे बहार निकले तो उनसे खदान के बारे में डिटेल जानकारी मांगी. उन्होंने कोल इंडिया के चेयरमैन को संबोधित अपने पत्र की प्रति मुझे दे दी. मैंने उसपर एक रिपोर्ट तैयार कर नवभारत टाइम्स के पटना संस्करण में भेज दी.उन दिनों नभाटा में फ्री लांसर्स के लिए एक साप्ताहिक पेज निकलता था. उस पेज में रिपोर्ट छप गयी. जिस खदान के संबंध में रिपोर्ट थी उसके प्रोजेक्ट ऑफिसर पारिवारिक मित्रों में थे. लेकिन उन्होंने कभी मुझसे इसके बारे में नहीं पूछा. लेकिन मधुसूदन सिंह मेरे सूत्र बन गए.
मित्रता का दायरा कुछ फैला. एक मित्र मिले रमाकांत तिवारी. फुसरो बाज़ार में उनका प्रिंटिंग प्रेस था. उनकी रूचि कुछ और थी और कर कुछ और रहे थे. बे गांजा पीने के शौकीन थे. इसका सारा इंतजाम वे साथ रखते थे. तांत्रिकों, अघोरों और गंजा पीनेवाले साधुओं से उनकी खूब पटती थी. उनके प्रेस में पत्रकारों, साधुओं और निठल्ले लोगों का जमावड़ा लगता था. उनका सरल स्वभाव मुझे पसंद आया. एक बार उन्होंने रजरप्पा का जिक्र किया. कुछ दिलचस्प बातें बतायीं. मैंने स्टोरी लिखने की इच्छा जताई तो वे अगले ही दिन चलने को तैयार हो गए.
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